छोटे छोटे सवाल –२६
शाम के इस सौन्दर्य की सबसे अधिक प्रतिक्रिया हिन्दू इंटर कॉलेज की इमारत पर होती है जो हर दृश्य के साथ रंग बदलती हुई एक धैर्यवान दर्शक की भाँति खड़ी रहती है। यों देखने में वह भी एक मामूली-ती पीली दुमंजिली इमारत है जो हर ओर से चौकोर नजर आती है। उसमें अन्दर जाने के लिए एक ही बड़ा-सा दरवाजा है जिस पर लोहे की मोटी नुकीली कीलें उभरी हैं और नीचे एक बड़ी-सी साँकल और कुन्दा लगा है। भीतर छोटा-सा आँगन है। दरवाजे से आँगन में घुसते ही बाईं ओर दफ्तर है जहाँ पवन बाबू बैठते हैं, फिर टीचर्स-रुम और लायब्रेरी है। और दाईं ओर ऊपर जाने का जीना, साइंसलैबोरेटरी तथा प्रिंसिपल का कमरा है। नीचे के शेष पाँच-सात कमरों में हाई स्कूल की कक्षाएं लगती हैं। और ऊपर की मंजिल में इंटरमीडिएट और छोटी कक्षाओं के छात्र बैठते हैं। यानी कुल मिलाकर इमारत का कोई खास प्रभाव दर्शक के मन पर नहीं पड़ता। किन्तु शाम होते ही इसमें भी तरंगें पैदा होने लगती हैं।
यही शाम शहर से कुछ दिलचस्पियों को बाँधे है वरना कॉलेज में नियुक्त होनेवाले नए अध्यापकों के सामने हर साल एक समस्या आती है कि यहाँ वक्त कैसे गुजारा जाए? राजपुर पच्चीस-तीस हजार की आबादी का एक छोटा-सा कस्बा है; जहाँ न कोई थियेटर है, न सिनेमा, न कोई सांस्कृतिक गतिविधि है, न साहित्यिक उत्साह । पूरे शहर में एक ही बड़ी सड़क है (जो बिजनौर से आती है) जिसमें इधर-उधर से रेंगती हुई सँकरी-सी कई गलियाँ आ मिलती हैं। गलियों में दिन-भर बच्चे, मकोड़े और नाबदान के कीड़े बिलबिलाते रहते हैं और सड़क पर गाँव से गुड़ या राव की गाड़ियाँ लेकर आए हुए किसानों पर, दलालों और आढ़तियों की मक्खियों-सी भीड़ भनभनाती रहती है।